Tuesday, October 4, 2011

दुःख व बंधन का कारणः वासना

दुःख व बंधन का कारणः वासना

दुःख व बंधन का कारणः वासना

(पूज्य बापू जी के सत्संग-प्रवचन से)

पूज्य मोटा के मित्र संत थे योगेश्वरजी महाराज। योगेवश्वर महाराज बालकेश्वर गाँव में सेनेटोरियम (स्वास्थ्य निवास) में रहने गये थे। वे कमरे में लेटे तो उन्हें बड़ी हावभाव वाली 30-32 साल की एक सुंदर स्त्री सामने खड़ी दिखाई दी। योगेश्वर महाराज साधन-सम्पन्न थे, डरे नहीं। उन्होंने उस स्त्री से पूछाः "तुम कौन हो ?"

वह बोलीः "आप आये हो तो मैंने यह खाट कर दी है। मैं इसी खाट पर रहती थी। मुझे यह कमरा और यह खाट बड़ी प्रिय है। प्रसूति करते-करते मेरी मौत हो गयी थी। अब मैं यहीं रहती हूँ।"

योगेश्वर महाराज समझ गये की यह प्रेतात्मा है।

"तुम क्या चाहती हो, क्या करती हो ?"

"बस यहीं रहती हूँ। लोगों को बीमार करती हूँ, मुझे मजा आता है।"

"ऐसा क्यों?"

"अकेले में क्या ! कुछ न कुछ करना होता है। मैं बीमार होकर मरी तो दूसरों को बीमार करने में मुझे रस आता है। अच्छा, मैं जाती हूँ। आपको बीमार नहीं करूँगी।"

बालकेश्वर गाँव में सेनेटोरियम के उस खण्ड में जो आये थे, रहे थे, वे सभी एक-एक करके बीमार हुए थे।

लंगर लगा है तो नाव बँधी रह जायेगी

रामकृष्ण परमहंस गोपाल की माँ के घर गये थे। साथ में राखाल नाम का सेवक था। जिस कमरे में रामकृष्ण आराम कर रहे थे, राखाल ने देखा कि ठाकुर वहाँ किसी से बात कर रहे हैं। दोपहर का समय था। ठाकुर अचानक उठकर बाहर जाने लगे।

राखाल ने पूछाः "ठाकुर ! तुम अपना बिछौना लेकर बाहर क्यों जा रहे हो ?"

"यहाँ जो रहते थे, वे मेरे कारण दुःख पा रहे हैं। इस घर में प्रेत रहते हैं। वे बोलते हैं कि तुम्हारे कारण हम धूप में भटक रहे हैं।"

मैंने कहाः "मेरे कारण तुम लोग धूप में मत भटको। मैं जा रहा हूँ।"

सेवक ने कहाः "तुम्हारे जैसे संत के दर्शन करने के बाद भी भूत अपनी दुर्गति से पार नहीं होते ?"

"समय पाकर होंगे। अभी तो उन्हें इस कमरे में रहने की वासना पकड़ के बैठी है।

राखाल ! चाहे कोई भी किसी को मिल जाये लेकिन अपनी वासना जब तक जीव बदलेगा नहीं, छोड़ेगा नहीं, तब तक उसकी वास्तविक उन्नति नहीं होगी। जैसे नाव कितनी भी जोर से चलाओ लेकिन लंगर लगा है तो नाव बँधी रह जायेगी, आगे नहीं बढ़ेगी।"

कौन किससे बँधा है ?

सूफी संत जुनैद जा रहे थे अपने शागिर्दों के साथ। एकाएक रूक गये। एक गाय को घसीटकर ले जा रहा था उसका कहलाने वाला गोपाल।

जुनैद ने कहाः "देखो, यहाँ कौन किससे बँधा है ?"

मूर्ख सेवकों ने कहा कि 'गाय ग्वाले की रस्सी से बँधी है, खिंची चली जा रही है।'

ग्वाला पहचानवाला था। जुनैद ने चाकू निकाला और रस्सी काट दी। गाय पीछे भाग गयी और ग्वाला उसके पीछे भागा लेकिन गाय आगे निकल गयी। गायवाला रूष्ट होकर कहता हैः "यह तुमने क्या मजाक किया ! मेरी गाय की रस्सी काट दी, अब वह हाथ नहीं आयेगी।"

जुनैद ने अपने सेवकों को कहाः "अब कौन किससे बँधा है ? गाय खुल गयी तो गाय इसके पीछे नहीं गयी, यह गाय के पीछे गया। बताओ कौन बँधा है ?"

सेवक बोलेः "अभी पता चला कि यह बँधा है।"

ऐसे ही संसारी वस्तुओं के पीछे तुम भागते हो तो तुम बँधे हो। अपने-आपमें बैठना सीखो। अपने-आपमें प्रसन्न होकर, तृप्त हो के, अपने आत्मचैतन्य स्वभाव में स्थित होकर संसार में जियो, फिर संसार की चीजें तुम्हारे इर्दगिर्द मँडरायेगी।

कहीं अपने को ही धोखा तो नहीं दे रहे हैं ?

ससुर ने दामाद को कहा कि "मैं जा रहा हूँ विदेश। तू आर्किटेक्ट (भवन-निर्माता) है। यह ले चेकबुक। अच्छा सा मकान बना। जल्दी बनाना, मैं आऊँ तो मकान तैयार हो। सुंदर बनाना, पैसे की कमी नहीं है।"

ससुरजी जब विदेश की यात्रा से लौटे तो उसने हलका माल डालकर, हलका सीमेंट, कंक्रीट.... ये-वो करके बढ़िया रंग-रोगन से एक कोठी, एक बँगला तैयार रखा। हवाई अड्डे से ससुर जी को ले आया।

"मकान तैयार है ?"

"बिलकुल तैयार है। यह उसकी चाबी है।"

"आज नहीं, कल। जो तुम्हारी पत्नी है, मेरी बेटी है, कल उसका जन्मदिवस है। कल उस कोठी को देखने चलेंगे। मेरी बेटी को भी ले आना।"

कोठी देखी, रंग रोगन देखा, ससुर बड़ा प्रसन्न हुआ। जमाई से सब चाबियाँ लेकर बेटी की तरफ लक्ष्य करते हुए जमाई को दीं।

"यह मकान मेरी पुत्री के जन्मदिवस पर मैं तुम्हें अर्पण करता हूँ।"

जमाई पछताया कि 'अरे, जो मुझे मिलने वाली चीज थी उसमें मैंने ऐसा हलका, तुच्छ रोड़ी-सामान डाल दिया ! मैंने बेईमानी करके मेरे को ही धोखा दिया।'

हे जीव ! जो तू करता है, जो तू देता है, घूम फिर के तुझे ही मिलता है, इसलिए तू देने में, सेवा करने में, प्रेम देने में, प्रभुस्नेह करने में कंजूसी मत कर, नकली भाव मत ला। तू असली प्रीति कर।

मुझे वेद पुरान कुरान से क्या !

मुझे सत्य का पाठ पढ़ा दे कोई।

प्रभुप्रीति का पाठ पढ़ा दे कोई।

मुझे मंदिर मस्जिद जाना नहीं,

मुझे आत्म-मंदिर में पहुँचा दे कोई।।

ऐसे गुरु मिल जायें बस।

स्रोतः ऋषि प्रसाद, अगस्त 2011, पृष्ठ संख्या 18,19 अंक 224

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